Tuesday, December 21, 2010

प्याज के बहाने


आज मैंने प्याज नहीं खरीद कर 70 रुपये बचाए हैं। पिछले कुछ दिनों में ऐसा करके के मैं आम तौर पर 30-35 रुपये ही बचा पाता था। उससे भी पहले जब प्याज खरीदा करता था, तो 15-20 रुपये तो खर्च हो जाते थे। कहा जाए तो आजकल मैं 85 से 90 रुपये बचा रहा हूं प्याज नहीं खरीद कर। (आपको चुपके से बता दूं, ये बचत रोजाना की नहीं है, तीन चार दिनों की है. किसी को बताइएगा नहीं)। बहुत ही खुश हूं मैं। इसी खुशी में घर पहुंचा। पत्नी बोली, प्याज लाए?
-नहीं डर के मारे खुशी काफूर हो चुकी थी।
-कहा था ना. कि प्याज भी लाना है। चार-पांच ही बचे हैं।
-हां कहा तो था लेकिन..मेरा जवाब खत्म होने से पहले ही एक टेप रिकॉर्डर शुरू हो गया। ना जाने किस कंजूस से पाला पड़ा है। एक प्याज लाने को कहो तो महंगाई का रोना रोने लगता है। शायद उसने टीवी पर देख लिया था कि प्याज का कैसे हाहाकार मचा हुआ है। कुछ राहत मिली। प्याज की पूरी कहानी नहीं बतानी पड़ेगी, कि कैसे सब्जी बाजार में प्याज की अहमियत बढ़ गई है। कल तक आलू के साथ नीचे जमीन पर बिछे बोरे पर पड़ा रहने वाला प्याज आज टोकरी में था। नोचे, अध-नोचे छिलकों से लिपटा रहने वाला प्याज आज सलीके से मुस्कुरा रहा था। सब्जी वाला कैसे बार बार अपनी प्याज को निहार रहा था। कैसे वो एक नजर देखकर प्यार से प्याज पर हाथ फेर रहा था। एक पाव प्याज बेचने पर (हालांकि इसकी बारी कम ही आती थी) वो टेढे हो चुके एक दो प्याज को फिर से सलीके से सजा कर रख देता था, प्यार से।
हमें तो ये देख देखकर रश्क हो रहा था। काश हमें भी कभी इस प्याज सा इज्जत मिलता!
लेकिन नसीब ही कहां कि मैं भी प्याज हो जाऊं।
बीबी का रिकॉर्डर जारी था- इस घर में आकर एक-एक चीज के लिए तरस गई हूं। पड़ोस में देखो, क्या प्याज के पकौड़े बनाए जा रहे हैं। बच्चे के लिए चीनी मांगने गई थी, देखा भाई साब की खाने की थाली में दो कच्चे प्याज डले हैं। कमबख्त कौशिकाइन ने सुना भी दिया- हम तो भई महंगाई-वहगाई नहीं देखते हैं। कितना भी महंगा हो जाए प्याज, भाई साब को प्याज के बगैर नहीं रूचता। चेहरे पर गुरूर लाकर सुना रही थी बदमाश की बच्ची।
पत्नी के सुवचन को हमेशा की तरह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालते हुए अपना ध्यान प्जाय पर केंद्रीत कर रहा था। याद कर रहा था मंडी में कैसा था प्याज। प्याज दूसरे दिनों के मुकाबले ज्यादा खूबसूरत दिखाई दे रहा था। उसका रंग आज वाकई कत्थी दिख रहा था। थोड़ी बहुत गुलाबी भी था रंग में, लेकिन आकर्षक लग रहा था। छोटे छोटे प्याज भी आज वजनदार दिख रहे थे। मैं ये फैसला नहीं कर पा रहा था, कि पहले ऐसे प्याज को देखकर हम आगे बढ़ जाया करते थे या फिर रुककर मोलभाव भी करते थे। याद नहीं आ रहा मुझे। किसी ने सही कहा है-जो चीज काबू से बाहर हो जाती है, अहमियत तभी समझ में आती है।
बचपन में जिस लड़की को मैंने कभी घास खिलाने लायक भी नहीं समझा, बाद में वो हमारे साथ लाई-भूजा को भी तैयार नहीं होती, आखिर हमारे ही क्लास का एक साथी उसे 25 पैसे वाला मलाई-बर्फ खिलाने लगा था। कभी कभी तो 50 पैसे की कुल्फी भी। सच ही है हमारे साथ 10 पैसे के लाई-भूजा में उसे क्या मजा आता। उन दिनों लाली (यही नाम था लंबी चोटी वाली उस दुबली पतली लड़की का) का मोल नहीं समझा, आज प्याज अनमोल हो चुका था।
पत्नी पानी दे चुकी थी। चूड़ा का भूजा सामने था, कच्चे प्याज के बगैर। हिम्मत नहीं पड़ी कि बचे हुए चार-पांच प्याज में से एक टुकड़ा की भी मांग करता।
कोसता हूं क्यों नहीं गया रविवार की सुबह आलस छोड़ सब्जी लाने, जब शर्मा जी ने मंडी चलने के लिए कहा था। कहा था-चलिए मंडी से सब्जी ले आते हैं। ढाई-ढाई किलो आलू और प्याज ले लेंगे। गोभी भी एक पसेरी लेकर आपस में बांट लेंगे। दूसरी हरी सब्जी भी ले लेंगे। फिर फल भी सस्ते मिलते हैं। अब लगता है मुझे चला जाना चाहिए था। ये नहीं सोचना चाहिए था कि फिर से उनके स्कूटर से ही जाना पड़ेगा। मेरी साइकिल पर तो वो जाने से रहे। फिर जब फल खरीदने की बारी आती, तो ज्यादा से ज्यादा होता तो मंडी में झूठ मूठ का कह देता-कल ही दफ्तर से लौटते वक्त सेक्टर 26 की मंडी से सेब ले लिया था। 40 रुपये किलो दिया कमबख्त ने। ये अलग बात है कि सेक्टर 26 की मंडी में क्या बिक रहा है और किस भाव बिक रहा है मैं तो कभी देखता ही नहीं। आसमान छूते भाव होते हैं। खोड़ा के पास वाली मंडी का ही रुख करता हूं मैं। वो भी रात 10 बजे के बाद। सस्ती सब्जियां मिलती हैं उस समय। सही बात तो ये है कि कल ठेले पर जो सेब बेच रहा था वो, 30 रुपये से कम में आया ही नहीं। हमेशा 20 रुपये किलो के भाव में लेने वाला एक्सपोर्ट हाउस का मामूली क्लर्क 25 रुपये के भाव तक चला गया था। ये सोचते हुए कि आधा किलो सेब तौलवाऊंगा, और अड़ जाऊंगा कि 12 रुपये ही लो। 13 रुपये नहीं दूंगा। कहूंगा - तुम्हारी पॉलिथीन भी बर्बाद नहीं करूंगा, झोले में दे दो। लेकिन ये क्या बात हुई कि 12 रुपये 50 पैसे हुए और लोगे तुम 13 रुपये। कभी कभी तुम भी 50 पचास पैसे कम लो। लेकिन कमबख्त ने नहीं दिए। वैसे भी वो अच्छे सेब नहीं दिख रहे थे मुझे। थोड़े से दबे, मुरझाए, उदास-उदास से सेब थे। लेकिन थे तो वे सेब ही, वो आलू तो नहीं। और मेरा बेटा स्कूल में सेब ले जाता है। एक नई प्रथा शुरू हुई है वहां। लंच लाइम से पहले फ्रूट ब्रेक का। पांच दिन पहले ले गया था 10 रुपये का आधा किलो सेब। अगले दो दिनों में खत्म हो जाएगा। फिर लाना पड़ेगा। नहीं तो फिर पैरेंट टीचर्स मीटिंग में मैडम से सुनना पड़ेगा- आपका बेटा कह रहा था मम्मी ने कहा आज फ्रूट नहीं है। अच्छा अब समझ में आ रहा है। क्यों मेरी बीबी ऐसी किसी भी मीटिंग में जाने से क्यों हिचकती है !
तर्क है स्कूल वालों का-फ्रूट खाना चाहिए बच्चों को। पौष्टिक होता है। सेहत के लिए अच्छा होता है। लेकिन ये कैसे पूछूं स्कूल वालों से किसकी सेहत- बेटे की या मेरे पॉकेट की।
इस प्याज ने भी मेरी सोच को न जाने मुझे कहां-कहां भटका दिया। शर्मा जी के साथ मंडी नहीं गया और आज भुगत रहा हूं। पत्नी की डांट खा रहा हूं।(ये अलग बात है कि अब डांट से बेअसर हो गया हूं. आदत सी हो गई है) टीवी चल रहा है। कांग्रेस अधिवेशन की खबर से पहले प्याज की कीमतों की खबर। नीचे की पट्टी में अलग अलग शहरों में प्याज की कीमत। इधर प्याज पुराण चल रहा था, उधर किचन से रह रहकर बीबी उवाच...।
बेटे पर नजर गई। किचन और ड्राइंगरूम के बीच के हिस्से में बैठकर पढ़ते हुए कान खड़े थे। मां के प्रवचन को अनसुना करने की कोशिश करते हुए कलरिंग करने में लगा था। बुलाया।
पूछा - आज क्या सब पढ़ाई हुई स्कूल में।
बच्चे ने अपनी कहानी शुरू ही की थी, कि अंदर से आवाज आई- कभी पढ़ाते भी हो बच्चों को। आए और बैठकर टीवी देखने लगे। तुम 10 घंटे काम करते होगे, लेकिन यहां तो सुबह से रात तक जूझना पड़ता है दोनों के साथ। अब हमारे वश में नहीं दोनों को संभालना।
जी किया, पूछ लूं एक और ब्याह लाऊं। लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी। ये मजाक एक बार मुझे काफी भारी पड़ चुका है। प्याज से भी ज्यादा।
काफी पहले, एक बार कह दिया था-नहीं संभलते बच्चे और घर के काम तो एक और ब्याह लाता हूं। तुम घर का काम कर लेना। वो बच्चे संभाल लेगी।
भाई साब. उसके बाद जो सुनने को मिला। तो यही कोसता रहा क्यों ये शब्द निकले मेरे मुंह से। सुनाने लगी अच्छा! तो ये प्लानिंग है। कौन है वो कलमुंही, जिसके लिए तुम मुझे घर की नौकरानी बनाने की साजिश रच रहे हो. मैं झाड़ू बर्तन करूं और साहब रंग रेलिया रचाएंगे। मैं भौंचक्क। ये क्या हो गया। ऐसा तो कुछ मैंने कहा भी नहीं था। लेकिन मेरी बातों में उसे पूरी साजिश नजर आ रही थी। बर्तन पर उसके हाथ तेजी से चलने लगे थे। घिसने की आवाज साफ सुनाई पड़ रही थी। भर्राती हुई आवाज में आखिरकार रुलाई फूट पड़ी थी –‘ इसी दिन को देखने के लिए इस घर में आई। मैं पूरा दिन घर में काम करूं। खाना बनाएं। साफ सफाई करें। साहब के कपड़े साफ करूं। और साहब बन ठन कर बाहर आंख लड़ा रहे हैं। मुझे तो पहले से पता था तुम बाहर में क्या गुल खिलाते हो। मुझे नहीं पता है क्या। तुम क्या क्या चक्कर चला रहे हो।
शुरू में तो घबरा गया। ये क्या हो गया। मैं खुद से सवाल पूछने लगा। क्या वाकई मेरा कोई चक्कर है। लेकिन ऐसा तो कुछ नहीं था। ऑफिस की किसी लड़की के साथ बाहर भी नहीं गया था। कैंटीन भी नहीं। महंगे रेस्तरां तो दूर की बात। हां ऑफिस में हंस बोल कर बात जरूर कर लेता हूं। लेकिन वो भी ऐसी नहीं कि बात यहां तक पहुंचे। कोई ऐसा है भी नहीं कि घर में आकर आग सुलगाए। लेकिन भड़कती आग किसके रोके रुकी है-मैं नापसंद थी पहले ही बता दिया होता। अपनी जिंदगी तो बर्बाद नहीं होती।
आगे की कहानी याद आती है तो उसे भूल जाना चाहता हूं। रात में खाना नहीं हुआ। सवेरे कच्चे प्याज के साथ वही बासी खाना खाकर दफ्तर गया। देर रात तक समझाता रहा ऐसा क्यों सोचती हो। मेरा ये मतलब नहीं था। मैं तो बस यूं ही..। लेकिन औरतों को आज तक कौन समझा पाया है कि मैं समझा लेता। एक बात जो मैंने उस दिन समझी, वो ये कि मजाक तो यूं हंसकर भुला देने के लिए होता है। लेकिन शायद औरतें उसे कब्र तक याद रखती हैं। वो दिन है और आज का दिन। मैं चुप ही रहता हूं। ना चुप रहूं तो बगैर प्याज खाए प्याज के आंसू रोऊं। मैं सोच चुका था कल क्या करना है। कल आते वक्त एक पाव ही सही प्याज जरूर लेता आऊंगा। ज्याद से ज्यादा क्या होगा। दो दिन दोपहर में कैंटीन नहीं जाऊंगा। कह दूंगा साथियों से पेट में दर्द है। या फिर - कुछ खाने का मन नहीं।